मुस्लिम बुद्धिजीवी ध्यान दे



कल (नवम्बर 16, 2014) को राष्ट्रीय समाचारपत्र ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में एक लेख पढ़ रहा था, जो कि मुस्लिम कब्रिस्तानों की समस्याओं के बारे में था. इस लेख में इंगित एक तथ्य की तरफ मेरा ध्यान गया, जिसके अनुसार 1971 में दिल्ली की जनसँख्या में मुसलमानों का प्रतिशत केवल 6.5% था, जोकि आज बढ़कर 11.7% हो चुका हैं. इस लेख में इस बात पर भी जोर दिया गया था कि यह बड़े दुर्भाग्य की बात हैं कि इनमें से अधिकतर मुसलमान तंग बस्तियों में धर्मं के आधार पर इकठ्ठा होकर रहते हैं.
 
चूंकि यह लेख एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय समाचारपत्र में प्रकाशित हुआ हैं, एवं मुस्लिमों से सम्बंधित एक समस्या के बारे में दो मुस्लिम पत्रकारों द्वारा ही लिखा गया हैं, इसलिए मुझे उपरोक्त तथ्यों को सही नहीं मानने का कोई कारण नहीं हैं.
उपरोक्त तथ्यों का अपने- अपने दृष्टिकोण से अलग- अलग मतलब निकाला जा सकता हैं. कोई मुस्लिम विरोधी विचारधारा का व्यक्ति, यह बड़ी आसानी से कह सकता हैं, और ऐसा बड़े जोर शोर से कहा भी जा रहा हैं कि मुस्लिमों की बढ़ती जनसँख्या के पीछे एक छिपी हुई साजिश हैं, जिसके तहत इस बढ़ती जनसंख्या के आधार पर मुसलमानों द्वारा पूरे भारत पर चुनावों और लोकतंत्र के माध्यम से कब्ज़ा कर लिया जायेगा. इसी तर्क के तहत हिन्दुओं से भी मुसलमानों की भांति अपनी जनसँख्या बढ़ाने का आह्वान किया जाता हैं.

मुस्लिम जनसँख्या से सहानुभूति रखने वाले मुसलमानों की जनसँख्या में हो रही इस अप्रत्याशित वृद्धि के पीछे समाजशास्त्रीय कारण ढूंढ सकते हैं, लेकिन यह एक बहुत बड़ी सच्चाई हैं और इससे हम मुंह नहीं मोड़ सकते कि बड़ी जनसँख्या अशिक्षा, जाहिलपने, गरीबी, अपराध और पता नहीं किस किस बुराईयों की जड़ हैं. और यह बात हर कौम व धर्मं पर लागू होती हैं, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान.

यह बात सोलह आने सही हैं कि दो या एक बच्चे का बाप, अपने बच्चों को, उस बाप की बनिस्बत, जिसके छे या सात बच्चे होंगे, ज्यादा अच्छी तालीम व संस्कार दे सकता हैं, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि इन दोनों बापों में से किसका मजहब या धर्म क्या हैं? अब अगर इन दोनों बापों में से वह बाप जिसने छे या सात बच्चे जने हैं, अपने हिन्दू या मुसलमान होने की दुहाई दे, या फिर अपने बच्चों की बदहाली के लिए कोई और कारण ढूंढें तो इसका क्या किया जा सकता हैं

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अभी दिल्ली की त्रिलोकपुरी में हुए दंगों की थोड़ी सी पड़ताल की तो पता चला कि सारा खेल निम्नवर्गीय मुसलमान, जिनको एक अवैध बस्ती के बदले राजनीतिक दबाव में मुफ्त जमीन देकर बसाया गया हैं, और निम्न मध्यवर्गीय व मध्यवर्गीय अन्य समुदायों के बीच पनप रहे तनाव व संघर्षों की देन हैं. निम्नवर्गीय मुसलमानो को अपने से समृद्ध हिन्दू किसी शोषित वर्ग की तरह लगते हैं व तुलनात्मक रूप से समृद्ध हिन्दूओं को अचानक सरकारी जमीन पर बसा दिए गए इन मुसलमानों के प्रति कुछ विद्वेष का भाव ही निकलता हैं.


इस बसाई गई मुसलमान बस्ती में अधिकतर या तो किसी मेहनतकश काम में लगे हैं या फिर ऐसी भी उड़ती उडाती खबरे मिली कि नए नौजवान छोटे मोटे अपराध करके पेट पाल रहे हैं. जबकि हिन्दुओं में अधिकतर नौकरीपेशा या छोटे मोटे व्यवसायों में लगे पाए गए. कई हिन्दुओं की सोच का यह हाल हैं कि उन्हें लगता हैं कि इन मुसलमानों में बहुत सारे अवैध बंगलादेशी भी मिल गए हैं. जब ऐसे हालात हैं और जब दिलों के बीच ऐसी दूरी हैं तो तो फिर दोनों समुदायों के बीच मेल मिलाप कैसे हो?

लेकिन सबसे बड़ी अजीब बात जो मैंने देखी कि इस मुस्लिम बस्ती में शिक्षा, परिवार नियोजन के प्रचार प्रसार के लिए कोई भी संगठित प्रयास नहीं हो रहा था, न तो किसी सामाजिक संस्था के द्वारा; और न ही किसी राजनैतिक दल द्वारा.

यह हाल केवल दिल्ली की त्रिलोकपुरी बस्ती का नहीं, बल्कि पूरी दिल्ली का; या फिर थोड़ी हिम्मत करके कहूं तो पूरे देश का हैं. एक बार मुसलमानों के एक बड़े धार्मिक नेता से गुफ्तगू में मुझे यह जानकर बड़ी हैरानी हुई कि उनकी सोच से एक गरीब मुस्लमान, एक पैसे वाले मुसलमान से ज्यादा दीन व मजहब को मानने वाला होता हैं, इसलिए अगर उनकी बात की तह में जाये तो जितने ज्यादा मुस्लमान गरीब और बेबस रहेंगे, उतना ही इस्लाम का भला होंगा. बच्चे पैदा करने व मॉडर्न एजुकेशन के बारे में उनके खयालात जानकर तो मैं होश खोते खोते बचा. हालाँकि बाद में यह जानकार मुझे बड़ी राहत हुई कि ऐसे खयालात उनके अपने खुद के बच्चों के बारे में नहीं थे.

 

ऐसा नहीं कि हिन्दुओं और अन्य धर्मों के मानने वालों में ऐसे कठमुल्लों की कमी थी, लेकिन वे इनके चंगुल से दशको पहले आजाद हो गए; और नए जमाने की तहजीब व जरूरतों के हिसाब से अपने को ढाल लिए. अब जब आज के जमाने में भी एक ख़ासा मुसलमानों का तबका मदरसों की दीनी तालीम लेकर निकलेंगा, तो उसे कोई ढंग का काम तो मिलने से रहा.
ऐसे में सारी जिम्मेदारी मुस्लिम बुद्धिजीवियों पर आ जाती हैं. क्योंकि जो बदलाव अन्दर से आता हैं, वही सच्चा बदलाव होता हैं. यही खरी खरी बातें, चाहे वे कितनी भी सच्ची न हो, किसी भी कौम को दूसरों के मुंह से भांती नहीं हैं. ऐसे में मुस्लिम बुद्धिजीवी अपनी जिम्मेदारी को समझे, आगे बढे, और उन सारे मसलों को, जिनसे ये पूरी कौम पिछड़ती जा रही हैं, को पुरजोर से उठाये और हल करें. मुस्लिम समुदाय के पढ़े लिखे तबके की इस पहल की जरूरत, न केवल उनके बदहाल मुसलमान भाईयों को हैं, बल्कि सारे देश को हैं. क्योंकि अगर इस देश की कोई भी कौम पिछड़ती हैं, तो उसकी कीमत पूरा देश देता हैं.

टिप्पणी: इस ब्लॉग के लेखक, आचार्य कल्कि कृष्णन्, स्थापित व प्रतिष्ठित ज्योतिषी व वास्तु सलाहकार हैं. वे ज्योतिष विज्ञान सम्बन्धी सबसे प्रतिष्ठित वेबसाइट एस्ट्रोदेवं के संरक्षक हैं. अपने सकारात्मक दृष्टिकोण के लिए विख्यात एवं अनेकानेक संस्थाओं से सम्मानित आचार्य कल्कि कृष्णन्,  स्वयं को संतुष्टि व सामंजस्य विशेषज्ञकहलाना पसंद करते हैं.  उनसे आप http://astrodevam.com/contact-us.html पर संपर्क कर सकते हैं.

Note: Āchary Kalki Krishnan, writer of this blog is an established and renowned Astrologer and Vastu Expert, and mentor of AstroDevam, most reliable website regarding Astrology and related sciences. Famous for his positive outlook and honored by a lot of organizations, Āchary Kalki Krishnan prefers to be addressed as ‘Wellness & Harmony Expert’.
He can be contacted at http://astrodevam.com/contact-us.html
 

1 comment:

  1. कुछ विचार लिखे द्वारका परिचय पछिक पेपर में डालना चाहता हूँ . आपके विचार सभी लोगो को मालूम होना चाहिए

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